निर्वाचन के दौरान उसमें सहभागी पार्टियों में देखने मिली कुछ चीजें
१. नेतृत्व पर आस्था, समर्पित कार्यकर्ता:
चुनाव के दौरान अपनी पार्टियों के नेता व अध्यक्ष पर बहुत ही जबरजस्त आस्था देखी गई। जो पार्टी व नेता कल तक जनता को सीखा रहे थे कि चुनाव में भाग लेना घोर-गद्दारी है, आत्महत्या है आदि आदि, उसी ने जब तुरन्त अपनी सारी जुबान से पीछे हटते हुए चुनाव में भाग लेने का फैसला किया, तो लाखों में से १-२ कार्यकर्ता तक भी नहीं निकले जो अपने नेतृत्व के निर्णय को बहिष्कार करे। उनकी पूरी आस्था नेतृत्व पर बनी रही। जबकि वह निर्णय बिल्कुल सच्चाई के खिलाफ था, जनता के साथ धोखा था, आंदोलन के साथ गद्दारी थी, शहीद के साथ गद्दारी थी, परंतु वहां पर "कोई सच्चाई के लिए लड़ने वाले" नहीं निकले बस नेता के लिए लड़ने वाले निकले, कितना समर्पण था कार्यकर्ताओं का अपनी पार्टी और नेताओं के लिए ! और सबसे गज्जब बात यह है कि नेतृत्व से कभी कोई जवाब नहीं माँगा गया, कोई सवाल नहीं उठाई गई, न तो कोई कारण तक ही माँगा गया, कि आखिर क्यों ? बस नेतृत्व के निर्णय को स्वीकार करके आगे बढाया गया। यहाँ तक कि जिन कार्यकर्ता व जिला नेताओं ने कसम खा रखी थी कि हमारी पार्टी ने अगर चुनाव में भाग लिया तो हम आत्महत्या कर लेंगे, राजनीति से सन्यास ले लेंगे आदि..., उन लोगों ने भी अपने सारे वादे भूलकर नेतृत्व की बात मान ली। यहाँ तक कि जिन युवा नेताओं से विद्रोह की आशा रहती है, उनमें भी तनिक सा विद्रोह नहीं देखा गया।
२. संगठन में १०००ओं छोडते हैं, १०००ओं आते हैं। यह सामान्य प्रक्रिया है।
निर्वाचन की भनक लगते १०००ओं नेता कार्यकर्ता अपनी पार्टी छोडने का और दूसरी पार्टी में प्रवेश करने का दौर बडी जोड से पकडा, खास करके मधेश में। उन पार्टियों की समाचार मानें तो लाखों लाख कार्यकर्ता पार्टी में प्रवेश करते, अब एक में प्रवेश कर रहे हैं तो उतने ही कार्यकर्ता किसी पार्टी को छोडे भी होंगे ! हृदयेश त्रिपाठी जिसे मधेशियों ने कुछ ही हप्ते पहले खूब तारीफ की थी, वे (लगभग) स्वयं एमाले में प्रवेश कर गए, तो जिन युवा नेताओं से मधेश के लिए बड़ी आश की जा रही थी, जो मधेश के लिए बडी-बडी बातें कर रहे थे, वे अभिशेष प्रताप शाह जी तो मधेशवाद को तिलाञ्जलि देकर काँग्रेस में चले गए। तो नेता व कार्यकर्ताओं को आना-जाना संगठन में लगा रहता है, यह सामान्य प्रक्रिया है।
३. गज्जब का कमांड-चेन:
जिन पार्टियों को संगठन और प्रशिक्षित कार्यकर्ता नहीं होने का आरोप लगता रहा, उसी में भी चुनाव के दौरान पार्टियों के कार्यकर्ता व समर्थकों में गज्जब का कमांड-चेन देखा गया। जहाँ नेतृत्व ने कहा: दूसरी पार्टी काँग्रेस/एमाले को भोट देना है, वहाँ तुरन्त ही वैसा किया गया, जहाँ काँग्रेस/एमाले/माओवादी के कार्यकर्ताओं को राजपा-फोरम को भोट डालने के लिए कहा गया, वहाँ पुर्खौली काँग्रेसिया ने भी वैसा ही किया।
४. नेगेटिव-चार्म:
आपने देखा होगा कि भले ही हमें बचपन से सिखाया जाता है कि सिगरेट शराब पीना, जुवा खेलना, मारपीट करना बुरा लोग बनना है, ऐसे लोगों को दुनियाँ में कोई मान-सम्मान नहीं करता, परन्तु अक्सर लड़कियाँ ऐसे "बैड़-ब्वाई" पर ही फिदा होती है। उसी तरह भले हम भ्रष्टाचार नहीं करनेवाला, सच्चाई के लिए लडने वाला, सदैव सच बोलने वाला, अपनी जुवान पर चट्टान की तरह कायम रहने वाला, सिद्धान्त पर चलने वाला, जनता के लिए मरनेवाला, त्याग करने वाला आदर्शवादी छवि नेताओं के लिए सैद्धान्तिक रुप में मानते हो, पर वास्तविक जीवन में शक्तिशाली, भ्रष्टाचारी धनी, शहिदों और वतन का सौदा करनेवाला, समाज में शराब और गुंडागर्दी जैसी कुरीति फैलानेवाले, जनता को धोखा देनेवाला नेता की ओर ही जनता आकर्षित होती है। यह वही विचित्र मनोविज्ञान है। इसमें sadism/masochism की दशा भी है: जनता को धोखा खाने में ही मजा लगता है और नेताओं को धोखा देने में, जनता को गुलामी करने में ही मजा आता है और नेताओं को गुलाम बनाने में, जनता को मरने में मजा आता है और नेताओं को जनता मरवाने में। (मैं यह कोई sarcastic तौर पर नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि यह मनोदशा का यथार्थ चित्रण है। ऐसा नेगेटिव-चार्म क्यों आता है, अगर विश्लेषण करें तो मिलेगा कि धोखा में नवीनता होती है और इसलिए उसमें एडवेन्चर की अनुभूति ज्यादा होती है, और इसलिए वह इच्छित बन जाता है। )
(यही सीखना है ऐसा नहीं बोला हूँ, इसलिए तो शीर्षक में "देखने मिली कुछ चीजें" लिखा हूँ, "सीखने वाली चीजें" नहीं)
५. एजेन्डा नहीं, हल्ला महत्त्वपूर्ण:
जब संविधान जारी होने के दौरान सडक आंदोलन करवाना था, तो सिर्फ हल्ला चला दिया कि सारे अधिकार संविधान छीन लिया है, सडक आंदोलन से ही सब कुछ सम्भव है, अंकगणित और बहुमत मायने नहीं रखता, और उसी पर सडक आंदोलन हो गया और ६० लोग से ज्यादा मारे गए। (पर लोगों को क्या, नेताओं को तो मालूम नहीं था कि क्या छीना है और वे क्या पाना चाहते थे! वह तो बहुत बाद में आकर माँग को पेश की गई।)
अब हालाकि संविधान वही है, एक भी माँग पूरी नहीं हुई है, पर निर्वाचन में भाग लेना था तो उसी तरह हल्ला फैला दिया कि निर्वाचन से ही सब कुछ सम्भव है, यही आंदोलन है, बहुमत दो तो मधेश सरकार बनेगी, उससे मधेशी सेना, पुलिस, कर्मचारी सब कुछ कायम होगा, सीमांकन बदल देंगे, सारे अधिकार ले लेंगे। तो फिर क्या था ! किसी ने थोडे ही पूछा कि कैसे करोगे, बस हो गए फिदा !
जबकि सच्चाई ये है कि इस निर्वाचन में भाग लेने से काला संविधान और विभेदपूर्ण प्रादेशिक संरचना को उल्टा वैधता मिल गई। और प्रदेश २ में सरकार बनाने से कैसे मधेशी सेना व पुलिस बन जाएगी ? कैसे यहाँ मधेशी कर्मचारी ही रहेंगे ? कैसे नागरिकता का ऐन यह प्रदेश सरकार बना लेगी और नागरिकता वितरण कर देगी? कैसे सीमांकन संशोधन कर देगी ?....

1 comment

Unknown said...

NICE ARTICLE KEEP UP GOOD WORK
RICHA CHADHA

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